बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्यसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य
प्रश्न- मार्क्स के 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिये?
उत्तर -
मार्क्स के 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' की विशेषतायें
मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में निम्नलिखित विशेषतायें पाई जाती हैं :-
1. भौतिक वस्तुओं का महत्व - मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद विचारों की अपेक्षा भौतिक वस्तुओं को अधिक महत्व देता है तथा विकास की प्रक्रिया का आधार भी भौतिक पदार्थों में आन्तरिक विरोध बताता है।
2. विरोधी भावों का समन्वय - मार्क्स का मानना है कि विकास सदैव परस्पर विरोधी रूपों से होता है। इनके अनुसार, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का आधार विचारों के क्षेत्र में वाद-प्रतिवाद तथा सम्वाद न होकर आर्थिक वर्ग तथा वर्ग संघर्ष ही है।
3. आमूल परिवर्तन की अवस्थायें - द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार एक - विरोधी समागम, दो गुणात्मक परिवर्तन और तीन निषेध का निषेध आमूल परिवर्तन तीन अवस्थाओं से गुजरता है।
4. परिवर्तन एक सतत् एवं जटिल प्रक्रिया - मार्क्स के अनुसार, द्वन्द्ववाद से गुणात्मक परिवर्तन होते रहते हैं। मार्क्स अपने द्वन्द्ववाद में गुणात्मक परिवर्तन द्वारा क्रान्ति के औचित्य को सिद्ध करते हैं। शोषित वर्ग धीरे-धीरे उन्नति ही नहीं करेगा वरन् वह क्रान्ति के रूप में तीव्र गति से अपने में परिवर्तन करेगा। मार्क्स क्रान्ति को उचित मानते हैं क्योंकि इसके द्वारा ही पूँजीवाद को नष्ट करके शोषित वर्ग का उत्थान हो सकता है।
5. पूर्ण समग्रता की भावना - मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद वस्तुओं और घटना - प्रवाहों को अलग-अलग न मानकर एक-दूसरे से सम्बन्धित मानता है तथा पूर्ण समग्रता की व्याख्या करता है।
6. आलोचनात्मक एवं क्रान्तिकारी - मार्क्स का द्वन्द्ववाद प्रत्येक वस्तु के अन्तर्विरोध का अध्ययन करता है। वह वस्तुस्थिति का यथार्थवादी अध्ययन है, इसलिये स्वभावतः आलोचनात्मक है। वह सर्वहारा वर्ग को उसकी ऐतिहासिक भूमिका का अहसास कराता है, इसलिये क्रान्तिकारी भी है
मार्क्स मानव इतिहास के विकास की व्याख्या भौतिक वस्तुओं की परिवर्तनशील स्वाभाविक प्रकृति तथा इनमें पारस्परिक आन्तरिक विरोध के आधार पर करता है। भौतिक जगत का विकास क्रमबद्ध न होकर भी अबाध गति से निरन्तर होता रहता है। इस विकास में वाद, प्रतिवाद तथा सम्वाद का क्रम निरन्तर जारी रहता है। इनमें से प्रत्येक अपने पूर्वगामी का विरोधी होता है तथा सम्वाद स्वयं कुछ समय के पश्चात् वाद बन जाता है तथा सम्पूर्ण प्रक्रिया फिर से शुरू हो जाती है।
मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को जौ के दाने द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है जिस प्रकार जौ के दाने को जब भूमि में बो दिया जाता है तो वह अंकुरित हो जाता है। जौ का दाना स्वयं तो नष्ट हो जाता है, परन्तु उसके अंकुर से एक पौधा बन जाता है उस पौधे में अनेक जौ के दाने स्वयं लग जाते हैं। कुछ समय बाद जौ का यह पौधा स्वयं समाप्त हो जाता है और दानों से फिर अनेक पौधे उगाये जा सकते हैं। जौ का यह दाना वाद है, पौधा प्रतिवाद तथा फल सम्वाद है।
मार्क्स के सिद्धान्त की आलोचना
मार्क्स के इस सिद्धान्त की निम्नलिखित बिन्दुओं पर आलोचना की जा सकती है -
1. मार्क्स ने यह कभी सिद्ध करने का प्रयास नहीं किया कि पदार्थ किस प्रकार गतिशील होता है। बेवर के शब्दों के, "द्वन्द्वात्मक की धारणा अत्यन्त अस्पष्ट है। इसको मार्क्स ने कहीं स्पष्ट नहीं किया।"
2. मार्क्स ने हीगल के सिद्धान्त को अपनाया परन्तु उसको पदार्थ पर लागू कर उसके मूल तत्व को ही नष्ट कर डाला।
3. यह माना जाता है कि संघर्ष मानवीय विषयों के प्रमुख भूमिका निभाता है, परन्तु मार्क्स ने उसको विश्वव्यापी रूप में उपयुक्त करके उसे भ्रामक बना दिया है।
4. मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक में विकास की शक्ति पशुबल है तथा क्रांति ही विकास का एकमात्र साधन है। यह गलत धारणा पर आधारित है।
5. पदार्थ के बारे में यह उचित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पदार्थ अपनी चेतना के. कारण विरोधी तत्व को जन्म देता है। वास्तविकता यह है कि पदार्थ में परिवर्तन आंतरिक चेतना के कारण नहीं होता, बल्कि यह परिवर्तन ब्राह्य शक्तियों के कारण होता है।"
6. मार्क्स अपने विरोधी विचारों में भटक जाता है कि मनुवय परिस्थितियों का निर्माण करता है या परिस्थितियाँ मनुष्य का।
7. मार्क्स ने भौतिकवाद को आर्थिक शक्तियों का आधार माना है, किन्तु विश्व का विकास शक्तियों के माध्यम से ही होता है, यह कैसे स्वीकार किया जाये?
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